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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१११

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गया। सच मुच घड़ी आ पहुँची थी। मैं एक टक देखता रहा-न बोला, न चाला। माता ने कहा-"बेटी! देख तो यह कौन है?" उसे चैन नहीं था। सॉस मे कष्ट होता था। उसने उस कष्ट को सह कर मेरी ओर देखा। ऑखे सफेद थीं, वे फट कर दूनी हो गईं थी। उन्हीं आँखो मे से आँसुओं की धार बह चली। मुझसे कुछ भी न बन पड़ा। माता ने उसके आंसू पोंछ कर कहा--"बिटिया! देखो तो यह सामने कौन है।" कला ने बड़े कष्ट से कहा---"बडे भैया।" इतने ही मे वह हॉफने लगी। उसे दो एक हुचकी आईं। पिता, जी उसे गोद मे लिये बैठे थे। उन्होने गद्गद कंठ से कहा---"घबराओ मत भाइयो! सब भगवान से प्रार्थना करो, अब तो यह हमारी है नहीं, भगवान् दे जायँ, तो दे भी जायँ। वे सभल न सके, रोने लगे। कला उनकी गोद मे झुक गई। उसका रंग फक हो गया था। सब झपट कर ऊपर लपके। सबने मानो एक मन, एक प्राण, एक स्वर से कहा---“कला! कला!"मैं ठहर न सका। वहाँ से सॉस बन्द करके बाहर भागा। बाहर उसके सुसराल के आदमी, उसके पति, उद्विग्न बैठे थे। सब बोले---"क्या हाल है?" मैंने बोलना चाहा,---पर बोल न सका। भीतर से रुदन उठा। प्रथम एक कण्ठ, पीछे


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