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अन्त में वह घड़ी भी आ ही पहुॅची। मुझे भास गया,
कच्चे धागे मे तलवार लटक रही है, क्या जाने कब टूट पड़े।
हवा के झोके झकजोर रहे थे। मन रोना चाहता था पर स्थान
न था। रात ही को यह विचार लिया था। सुबह जब नीचे
उतरा, माता ने कहा -- "बेटा! कला को देखना तो, आज वह
कैसा कुछ करती है। मेरा, कलेजा कॉप उठा। मैंने मन में
कहा -- क्या घड़ी आ पहुॅची? हिम्मत करके भीतर गया।
अन्धेरा था। सारी खिड़कियाॅ बन्द थीं । एक मिट्टी का दिया
टिमटिमा रहा था। मैंने खाट के पास जाकर देखा -- कॉप