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अलापा―“लुट गया धींग धनी धन तेरा।” मैं वहाँ से भी
भागा। ऊपर जाते हुए देखा, सीढ़ियों मे सुभगा पड़ी
टुसुक रही थी। मैं उसे उठा कर ऊपर ले चला। मेरे
छूते ही वह बिखर गई। वह क्रन्दन, वह मर्मस्पर्शी उक्तियाँ,
वह भयकर हाय, सर्वथा असह्य थी। जाती कहां? छाती
गले तक भर रही थी। जरूरत रोने की थी, पर रोने को
जगह न थी। जगह एकान्त चाहिए। पर उस घर का वायु
मण्डल रुदन से भर रहा था। पड़ोस की स्त्रियाँ घर घर मे
जुट रहीं थीं। पड़ोसी द्वार पर इकठ्ठ हो रहे थे। आश्वा-
सन रुदन को बढ़ाता था। धैर्य का ठीक न था। विकलता
थी, जलन थी, सन्ताप था, खिसियाहट थी, अशक्ति थी,
लाचारी थी और रुदन था, रुदन था और रुदन था।
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