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सकता। कथन के बाहर है। प्रकाश का कण हो गया हूँ।
कण का प्रकाश मैं हूँ। व्याप्त सामर्थ्य की धार बह रही है--
पर क्षय नहीं होती। वह कहीं से आ भी रही है। न शीत
है न उष्ण, न इधर है, न उधर। कहना व्यर्थ है। अब
अप्रकट कुछ नहीं। प्राप्य कुछ नहीं। महान् कुछ नहीं।
किसी का अस्तित्व नहीं दीखता। केवल मैं हूँ। मैं बड़ी हूँ!
यह वही है। यही है वह।
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