सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


सकता। कथन के बाहर है। प्रकाश का कण हो गया हूँ। कण का प्रकाश मैं हूँ। व्याप्त सामर्थ्य की धार बह रही है-- पर क्षय नहीं होती। वह कहीं से आ भी रही है। न शीत है न उष्ण, न इधर है, न उधर। कहना व्यर्थ है। अब अप्रकट कुछ नहीं। प्राप्य कुछ नहीं। महान् कुछ नहीं। किसी का अस्तित्व नहीं दीखता। केवल मैं हूँ। मैं बड़ी हूँ! यह वही है। यही है वह।








१०४