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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/११९

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हैं, सब गन्ध बस रही हैं। पर किस तरह? सो पता नहीं लगता। अपूर्व है। सब अपूर्व है। यहाँ सब प्राप्त है। अब मालूम होता है, इच्छा एक रोग था। मन एक बेगार थी। इन्द्रियाँ भार थीं, मूर्ख था। इन्हे खूब सजाया उल्लू की तरह नाचा। गधे की तरह लदा फिरा और अपराधी की तरह बॅधा रहा। ठहरो। मुझे अपने आप को समझ लेने दो। वाह! मैं क्या हूँ? जहाँ इच्छा जाती थी अब वहाँ मैं जा सकता हूँ, जो मन करता था वह मैं अब कर सकता हूँ। बड़ा मजा है, बड़ा आनन्द है, बड़ा सुख है। कभी नहीं मिला था। मानों मैंने स्नान किया है। या? ठहरो-सोचने दो, कुछ भी समझ मे नहीं आता। मानों तंग कोठरी की कैद से निकल कर स्वच्छ हरे भरे मैदान मे आ गया हूँ। कही भी दर्द नहीं है। कहीं भी कसक नहीं है। न प्यास है न भूख । न उठना, बैठना, न सोना। सब कुछ मानो एक साथ स्वयं हो रहा है। प्रतिक्षण हो रहा है। यह क्या है! इतना तेज! इतना व्याप्त! यह लो, लीन हो गया। जैसे लहर लीन हो जाती है, जैसे स्वर लीन हो गया। वह भी मैं ही हूँ। मैं! अनन्त मे फैल गया हूँ। न आदि है न अन्त, न रूप है न स्पर्श---केवल सत्ता है। वह शुद्ध बुद्ध मुक्त है। प्यास बुझ गई है। कांटा सा किलल गया है। नींद सी आ गई है। कुछ नहीं कह