पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१३१

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तत्क्षण

अनन्त कालीन पथिक की भॉति निःशब्द शान्ति शैय्या के पास खड़ी थी। और अनन्त मृत्युदर्शक तारे आकाश अश्रुविन्दु की तरह चमक रहे थे। उसने अपने जाते हुये जीवन को धन्यवाद दिया और अपने अस्तगत भाग्य को सराहते हुये कहा---"आज मेरे सौभाग्य का उत्कर्ष है" और सिर नवा लिया। एक क्षण अपने बिछुओं को उसने जी भर कर देखा।

मै खो रहा था--पर उन नेत्रो ने ढूढ़ लिया।। अन्तस्तल मे घुस जाने वाली मुस्कुराहट उसके अप्रतिम होठो पर आई, उसने क्षीण स्वर मे कहा "अब तुम यहीं बैठे रहना"।