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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१७०

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सुखद नींद

ओह, इस प्रकार चुपचाप इस एकान्त में ऐसी सुखद नींद सोना कैसा अभूतपूर्व है।

न साथी न संगाती। अकेली---केवल अकेली। पर प्रिये; इतनी एकान्तप्रियता बड़ी भयानक है। ऊषा का उदीयमान प्रकाश और सन्ध्या का वृद्धिगत होता हुआ अन्धकार इस प्रसुप्त अनिन्द्य यौवन के इस पार से उस पार तक चला गया। विष्णुपादामृत ने अलकावालियों से क्रीड़ा की; प्रकाश की उज्जवल किरणों ने उन अधर सम्पुटों को चूमा, लज्जा की लाली आई और गई पर वह निद्रा फिर न टूटी।

कदाचित् यह वासन्ती वायु का उन्मत्त झोंका इस सुखद नींद को भंग करे।