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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/१९

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रूप

उस रूप की बात मैं क्या कहूँ? काले बालों की रात फैल रही थी और मुखचन्द्र की चॉदनी छिटक रही थी, उस चाँदनी मे वह खुला धरा था। सोने के कलसों मे भरा हुआ था जिनका मुँँह खूब कस कर बॅध रहा था, फिर भी महक फूट रही थी। उस पर आठ दस चम्पे की कलियाँ किसी ने डाल दी थीं। भोंरे भीतर घुसने की जुगत सोच रहे थे। मदन कमान लिये खड़ा रखा रहा था। उसका सहचर यौवन अलकसाया पड़ा था, न उसे भूख थी न प्यास, छका पड़ा था।