पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२०

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मैं बड़ा प्यासा था। हार कर पा रहा था। शरीर और मन दोनों चुटीले हो रहे थे, कलेजा उबल रहा था और हृदय झुलस रहा था। मैं अपनी राह जा रहा था। मुझे आशा न थी कि बीच मे कुछ मिलेगा। पर मिल गया। संयोग की बात देखो कैसी अद्भुत हुई। और समय होता तो मैं उधर नहीं देखता। मै क्या भिखारी हूँ या नदीदा हूँ जो राह चलते रस्ते पड़ी वस्तु पर मन चलाऊँ? पर वह अवसर ही ऐसा था। प्यास तड़पा रही थी, गर्मी मार रही थी और अतृप्ति जला रही थी। मैने कहा-जरासा इसमे से मुझे मिलेगा? भूल गया, कहा कहाँ? कहने की नौवत ही न आई―कहने की इच्छा मात्र की थी। पर उसीसे काम सिद्ध हो गया उसने ऑचल मे छान कर प्याले मे उड़ेला, एक डली मुस्कान की मिश्री मिलाई और कहा―लो, फिर भूला, कहा सुना कुछ नहीं। आँचल मे छान, प्याले मे डालकर, मिश्री मिला कर सामने धर दिया। चम्पे की कलियाँ उसी मे पड़ी थीं महक फूट रही थी। मैं ऐसी उदासीनता से किसी की वस्तु नहीं लेता हूँ पर महक ने मार डाला। आत्मसम्मान, सभ्यता, पदमर्यादा सब भूल गया। कलेजा जल रहा था-जीभ ऐंठ रही थी।