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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२१०

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पावस ऋतु

ये आंखे तो रात दिन बरसने लगीं।

मेरा वह मधुमय उज्ज्वल जीवन पावस की ऋतु हो गया, और मेरी आशा की आलोकित धारा अंधेरी रात हो गई। जगत हँसता है तो बिजली सी कौधा मारती है। जी घबराता है। मन की क्षुद्र बर्साती नदी मे बाढ़ आ गई है--और उसमे प्राण डूबने लगे है। अरे! कोई उबारने वाला भी है? घर और परिजन तो सब क्षितिज के उस पार है, कोई मीत ऐसा भी है जो वहां सन्देश पहुँचा दे, इन प्राणों के डूबने से प्रथम।