तभी से, एक भय-एक आशका मन में घर कर गई। कौन है यह अपरिचित? मै चौकन्नी सी, घबराई सी, भीताचकिता सी,
अब खेलने निकलती। परन्तु अब उसका अज्ञात अभाव भाव सा छू जाने लगा। वह छलिया अब छिप २ कर नये २ खेल दिखाता था। मै कभी विराग से देखती और कभी चाव से। उसका छू जाना मुझे भाने लगा। मैं अपनी नजर बचा कर उसे निहारने लगी। मैं उसकी प्रतीक्षा मे रहती। वह मुझे गुदगुदाने लगा। वह मुछे छूता था, गुदगुदाता था, आखमिचौली खेलता था। मै उसे पहचान गई थी, पर देख न पाती थी। फिर भी उसने मुझे ऐसा भरमाया कि मै विमूढ़ हो उसके हाथ विक गई।
उस दिन नदी के किनारे मैंने उसे देखा। प्रभात के सतेज सूर्य के समान उसका मुख था, और ऊषा के आलोक की भाति स्वर्ण शरीर। हीरे सी आखे और चॉदी सा मस्तक था, वह लोहे सा सुदृढ़ और केले के नवीन पत्ते की भाति कोमल था, वह जीवन की भॉति सुन्दर और प्रिय था, पृथ्वी भर की मिठास उसके उत्फुल्ल होठों मे थी। जब वह बोला तो वाणी मूर्तिमयी हो उठी।
मैं उस पर रीझ गई। मै सकुचाते हुए उसके पास गई। पूँछा---