पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


आकर्षण था, अद्भुत। जैसे भीषण अजगर अपने श्वास के साथ अनेक प्राणियों को अपनी ओर खींचकर निगल जाता है, उसी तरह उसने मुझे आकर्षण किया, मै विवश हो गया, परन्तु आत्मा से शरीर का विच्छेद नही हुआ था, यहाँ दिन था रात थी, मित्र बन्धु थे, और स्मृतियों की असख्य रेखाएँ थी, मैं उधर खिंचा चला जा रहा था। तीव्रगति से उड़ते पक्षी को जैसे नीचे का संसार दीख पड़ता है, उसी भॉति यह सब मुझे दीख रहा था। कभी २ मेरा शरीर मुझे छू जाता था। हाय, उसे बॉधवों ने बांध रखा था। आत्मा रव पर दुर्घष गति से जा रही थी, परन्तु किसी तरह शरीर से उसका विच्छेद न हो पाता था, अपदार्थ शरीर को लेकर जा कहां सकता था? उस वेग का आघात पार्थिव शरीर कहां सह सकता? मिट्टी के भारी खिलौने को लेकर कही भारी यात्रा हो सकती है?

कुछ न हुआ, शरीर न छुटा, मैं रह गया, वह रव दूर होता गया, उसका आकर्षण दूर होता गया, होश मे आकर देखा-वही दुःखदायी शैया, वहीं चिन्ता, और उत्तरदायित्वपूर्ण पारिवारिक भावना। वही पुराने मित्र, वही परिचित संसार, सब वही पुराना, अज्ञात रहस्य का ज्ञान मिलते २ रह गया, न जाने वहाँ क्या था? वह तत्त्व अज्ञात ही रहा। जान फिर इन्द्रियो के पीजरे मे लौट आया। जगत मे फिर लौट आ कर देखा, वही कोलाहल भरा था।

इति