पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/२४

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असम्भव है। रक्त की एक एक बूंद नाच रही थी और प्रत्येक क्षण में सौ सौ चक्कर खाती थी। हृदय में पूर्णचन्द्र का ज्वार आ रहा था, वह हिलोरों में डूब रहा था; प्रत्येक क्षण मे उसकी प्रत्येक तरंग पत्थर की चट्टान बनती थी, और किसी अज्ञात बल से पानी २ हो जाती थी। आत्मा की तन्त्री के सारे तार मिले धरे थे, उंगली छुआते ही सब झनझना उठते थे। वायुमण्डल विहाग की मस्ती में झूम रहा था। रात का ऑचल खिसक कर अस्तव्यस्त हो गया था। पर्वत नंगे खड़े थे और वृक्ष इशारे कर रहे थे। तारिकायें हँस रही थीं। चन्द्रमा बादलों मे मुंँह छिपा कर कहता था---भई! हम तो कुछ देखते भालते हैं नहीं। चमेली के वृक्षों पर चमेली के फूल---अंधेरे मे मुँह भींचे गुप-चुप हँस रहे थे। उन्होंने कहा जरा इधर तो आओ। मैंने कहा-अभी ठहरो। वायु ने कहा हैं! है! यह क्या करते हो? मैंने कहा-दूर हो, भीतर किसके हक्म से घुस आये तुम? खटसे द्वार बन्द कर लिया। अब कोई न था। मैंने अघा कर साँस ली। वह सॉस छाती मे छिप रही। छाती फूल गई। हृदय धड़कने लगा। अब क्या होगा? मैंने हिम्मत की। पसीना आ गया था। मैंने उसकी पर्वा न की।