पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३५

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कहाँ ले गई? न पूछो कथा का यह भाग बहुत ही कड़आ हैं।

हम लोग अपने अपने रास्ते लगे। अब चिट्ठियों का तार बचा था-वही केवल पुल था। पहली चिट्ठी पूरे १५ दिन में मिली थी। गुलाबी लिफाफा था, वह फट कर चूर-चूर हो गया है, पर अब तक सहेज रक्खा है। स्वप्न मे भी न सोचा था कि उसकी उम्र उनसे भी बड़ी होगी। कैसा सुन्दर वह पत्र था। सरल तरल प्रेम की वह वस्तु आज तक जीवन को जीवन देती है। फ़िर तो कितने पत्र आये और गये। अभी तक इतना जरूर था---हम लोग बुद्धिमान अवश्य हो गये थे, पर पत्र मे बुद्धिमानी को काम मे न लाते थे।

तीन साल तक पत्र व्यवहार बन्द रहा। पर समाचार मिलते रहे। दोपहर का समय था। मैं भोजन के आसना पर जाकर बैठा। मेरी स्त्री थाली परस रही थी। एक कार्ड मिला। उसमें उनका मृत्यु समाचार था। मैं मरता तो क्या? न रोया, न बोला, न भोजन छोड़ा। चुप-चाप भोजन करने लगा। उठकर बैठक मे लेट गया। रोना फिर भी न आया। बहुत इरादा किया पर व्यर्थ। हार कर सो गया।

पर अब ज्यों ज्यों दिन बीत रहे हैं, वात पुरानी हो रही है, मैं रोता हूँ। जब अकेला होता हूँ तब रोता हूँ। जब कोई दुख देता है तब रोता हूँ। जब कोई धोखा देता है अपमान करता है

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