पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/३६

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तब रोता हूँ। अब कोई चिन्ता हेती है तब रोता हूँ। जब कोई बात हँसी की देखता हूँ तो रोता हूँ। किसी बालक को हरा कोट पहने देखता हूँ तो रोता हूँ। कही व्याह होते देखता हूँ तो रोता हूँ। मेरे जीवन के प्रत्येक दैनिक कार्य इसी योग्य हो गये हैं कि बिना रोये उनमें स्वाद ही नहीं आता। हज़ार जगह रोता हूँ, जन्म भर रोऊंगा।

कभी कभी उन्हें स्वप्न में देखता हूँ, वही स्कूल की पुस्तकों का बण्डल बगल में, वही खिलवाड़ की बातें, वही ऊधम यही ही-ही-हा हा, वही धौलधप सब होता है, हूबहू मालूम होता है! पर! पर आँख खोलकर देखता हूँ तो मालूम देता है---वह सब स्वप्न है। वे दिन बीत गए हैं। अब मैं बड़ा हो गया हूँ जवान हो गया हूँ और अकेला रह गया हूँ। और? और वे मर गये हैं--पृथ्वी पर हैं ही नही!



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