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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/४९

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पुराना कपड़ा मांगने। वह मुझे बड़े, मीठे स्वर से 'बेटा' कह कर पुकारती थी, पर मेरे हृदय में उसके लिये कभी मातृभाव उदय नही हुआ। उसकी सूरत ही ऐसी थी। छोटी छोटी सांप जैसी आखे, सिकुड़े हुए अपवित्र होंठ और बिल्ली जैसी चाल-मुझे भाती न थी! मैं सदा उससे दूर भागता था। फटकारता, गाली देता, पर वह अपनी लल्लो पत्तो नही छोड़ती थी। उस दिन उसके बाद ही वह आई थी। वह प्यार की पुतली थी और यह घृणा की डायन। दोनो मे कुछ भी तारतम्य न था। पर मेरी बुद्धि चैतन्य हुई या मलिन, कुछ नहीं कह सकता---मैंने तारतम्य निकाल लिया। ठीक कीचड़ और कमल के समान। उस दिन मै उसे देख कर मुस्कुराया, एक चवन्नी बखसीस दी। उसने अपनी मनहूम आखो को धुन्ध पोंछकर एक बार चवन्नी की ओर और एक बार मेरे मुस्कुराने की ओर देखा, मैंने उसे पास बिठाया, बहुत सी बाते कीं, नहीं-नहीं उन्हे चेष्टा करके भुलाया है। अब याद नहीं करूंँगा। उन बातों की परछाई, ठीक अँधेरे मे दीये की लौ की तरह आज भी मेरे मनोमन्दिर मे काप रही है। उसी के द्वारा सब कुछ हुआ, उसी छुरी से मैंने सेध लगाई। उसी के हाथों मैंने वह छकड़ा भरा रूप, मनों यौवन खरीदा। चोरी का माल था-सस्ता ही मिला। कुछ मिठाई के दौनें, कुछ सुगन्धित तेल, कुछ साधारण वस्त्र, बस।



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