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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/५०

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उस दिन जब उसने आत्मसमर्पण किया था---वह मदराती थी---पर उसकी आँखों में ऑसू थे। वह पाप से डर रही थी। थर थर कांपती थी। प्रलोभन बहुत ही भारी था। वह जीत न सकी, हार गई। उसकी चाह में ग्लानि मिली थी। हर्षं मे भय था, विष था। कलेजा धड़क रहा था और बदन कॉप रहा था। मैंने इसकी परवाह न की। मेरी प्यास भड़क रही थी। रस निकट ही था। मैंने उसे भुलाने को बहुत सी बाते कहीं थीं वे सब झूठी थीं। पर उसने उन पर विश्वास कर लिया था। वह अन्त मे एक क्षण को मुस्कुराई भी थी।

पर मैं उसे खिलखिला कर हँसा न सका। इधर मेरा ध्यान न था। पहले ही मै छक गया। वह निमन्त्रण मे न्योते हुए ब्राह्मण की तरह प्रेम और अधिकार की प्रतीक्षा मे बैठी रही। वह मुझे दिल से चाहती थी यह बात तब भी मालूम थी---पर तब इस बात का मन ने मूल्य नहीं लगाया था।

उस दिन त्रयोदशी थी। ठीक याद है, फॉसी की तारीख की तरह। वह भविष्य होती है-यह भूत थी। कोई ९ बजे होंगे। मन्द वायु बह रही थी। रात दूध मे नहा रही थी। आकाश हंस रहा था। वह मेरे भेजे हुए फूलों के गजरे पहिन कर आई। चाँदनी ने उसके मुख को और भी उज्ज्वल कर दिया था। मैं


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