नही हँसा करते। माता ने नाम रक्खा था 'चटोरदास।' खट्टा
मीठा-ताजा बासी जो सामने आता, सामने आने की देर थी खाने की नही। और नींद? नीद का क्या पूछते हो? उधार खाये बैठी रहती थी। खाते खाते सो जाता था-सुना आपने? खाते खाते। मौज थी जो हृदय मे उमड़ रही थी-बिजली थी जो नस नस मे भर रही थी। हाय! कहाँ गये वे दिन? मेरे बचपन के दिन? वे सुनहरे, प्यारे दुलारे दिन? वे दग़ाबाज दिन? किस गड्ढे मे मुझे धकेल गये? जवानी? बुरा हो इस जवानी का, ईश्वर किसी को न दे यह जवानी। मेरा नाश बन कर छाती पर चढ़ी है, और अब काल बन कर सिर पर मॅडरा रही है। डायन न खाने देती है न सोने देती है-न चैन से साँस लेने देती है। कुलच्छनी कुलटा अपनी ही ओर देखती है अपनी ही ओर। यह गत तो बन गई है, पर मरी नहीं, हैजा नहीं हुआ---इसे काल नहीं आया। मक्खियाँ तो भिनकने लगी हैं---गलियारे में पड़ी रहती है। ऑसू पीती है, और गम खाती है--फिर भी जवान बनी हुई है-उफ है-तुफ है।
कहाँ गई वह नींद? वह भूख? वह हॅसी? वह मौज? बैठा रहता हूँ तो सिर मे विचारों की रई चलती रहती है, लेटता हूँ तो खून की बूंदें नाचती है, सोता हूँ तो स्वप्नी का ताँता बॅध जाता है, खाता हूँ तो खाना ही मुझे खाने लगता है, करूँ