सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


प्रायः हैं ही नहीं। विशेष कर मुझे तो खोजे मिले नहीं हैं---कहीं होंगे। मैं जहाँ खड़ा हूँ, वह एक बड़ी ही विकट पहाड़ी है। मेरे पैर जहाँ टिक रहे हैं, वह बहुत ही सकड़ी पगडण्डी है। उसके एक तरफ अतल पाताल है और दूसरी तरफ ढालू गगन- भेदी चट्टान है। दोनों ही--चट्टान भी और पाताल भी--मेरे ही जैसे जीवों से भर रही है। मुझमे और उनमें अन्तर इतना ही है कि नीचे वाले नीचे हैं और ऊपर वाले ऊँचे है। पर नीचे वाले ऊपर न आना चाहे और ऊपर वाले नीचे न आना चाहे तो यह अन्तर कुछ भी नहीं रहता। यह समझना कठिन है कि सुखी कौन है। पर मेरी इच्छा ऊपर ही जाने की थी, इससे मैं समझता हूँ ऊपर जाने मे सुख है। ऊपर जा पहुँचने में क्या है? सुख है भी या नहीं, इसकी बाबत कुछ भी नहीं कह सकता। पर शायद सुख नहीं है। इसके प्रमाण मे मैं यदि कहता हूँ कि मैं भो कुछ से ऊँचा हूँ, पर मुझे सुख कहाँ है? जो मुझ तक आना चाहते हैं, वे मुझ तक पहुँचने में भले ही सुख समझे, पर मुझे सुखी समझना उनकी भूल है। फिर भी वहाँ पहुँचने मे भी सुख समझा था, यही बड़ी बात थी। सुख की राह तो मिल गई थी। यही क्या कुछ कम था। पर अब तो यहीं, इसी अध-बीच मे, इसी तग पगडडी मे डेरा डालना पड़ा। अब बाकी समय का कोई समय-विभाग नहीं है। काम


५९