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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/७४

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निराशा

हाथ पैर मारना और खून सुखाना व्यर्थ है। न इससे कुछ हुआ, न होगा जब मैं ऐसे चेहरों का ध्यान करता हूँ जिन्हें धन में धन, रूप में रूप, प्यार में प्यार, सुख में सुख, विद्या में विद्या और मान में मान मिला हुआ है तब मुझे फुर्सत भी नहीं मिलती। और जब मैं उन मुखों का ध्यान करता हूँ जो कहीं कुछ न पाकर झुक गये हैं तो तबियत ऊब जाती है। किसे देखूँँ? अपने देखने से फुर्सत मिले तब न?

दुनिया ऐसी ही जगह है। यहाँ समतल स्थान बहुत कम हैं―