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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/९२

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अशान्ति

नस नस में रोगों ने घर कर लिया है। दवाइयों के जहर से कलेजा जला पड़ा है। सिर में विचारों की रुई घुनी जा रही है । कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? पलंग पर पड़े पड़े हड्डियाॅ दुखने लगीं। गद्दे काटते हैं। रातभर नींद नहीं आती। इतने खट- मल कहाॅ से आ गये! प्राण निकले तो पिण्ड छुटे। पर प्राण अभी निकलेंगे नहीं। कितनी सॉसत भुगतनी है? हे भगवान्, आगे क्या होगा? पीछे क्या होगा? कुछ भी तो नहीं सूझता। जब से होश सँभाला, जी तोड़ कर कमाया। सारी जवानी परिश्रम के पसीने मे लतपत पड़ी है। रात देखा न दिन। मान