पृष्ठ:अपलक.pdf/१८

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श्रपलक किन्तु प्रात्म-तुष्टि कहाँ, यदि न प्राप्त गहर सिन्धु ? तन्मयता शून्य विलग रहनि इसे आज खली; सिन्धु छोड़ बिन्दु चली। ४ अम्बर का भ्रमण किया; पैठी भू-गर्भ-बीच, सरसाया नव-जीवन पादप, तृण सींच-सींच; देखा चिरकाल-कलन, अवलोका ऊँच-नीच, किन्तु न क्षण भर को भी गृह की सुधि रच टली; बिन्दु सिन्धु छोड़ चली। ५ ओ गंभीर स्नेह-सिन्धु, ओ सुदूर इन्दु पूर्ण, इस बौरी बिन्दी का हुआ सकल गर्व चूर्ण विलग रूप अब असह्य, असहनीय चक्र घूणे; घहर उठो सम्मुख अब, बीत चुकी युगावली; बिन्दु, सिन्धु छोड़ चली। जिला कारागार, उमाव, दिनांक २२ जनवरी १९४३) दो