पृष्ठ:अपलक.pdf/२९

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अपलक यों कटते हैं दिन; कटती हैं यों ही रातें हम अपलक की; यो स्मृति-तरु के सुमन-शूल ये यहाँ निरन्तर झरा करें हैं। हम तो आठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा घरा करें हैं ! कभी स्मरण कुन्तल-चुवन के, कभी प्रगाढ़ चरण-चुबन के, कभी रहसि संलाप मधुर के, कभी मदिर मधु परिरंभण के, ये ही तो आधार बने हैं हम एकाकी विरही जन के; अहो, इन्हीं से तो हम अपना नीरस जीवन हरा करें हैं। हम तो आठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं। ५ स्मृति क्या है ? प्रिय, स्मृति ही तो है केवल यहाँ, हमारी थाती ! यह न पास होती तो कब की टूक हो गई होती छाती !! और कौन संबल ? हाँ भूले-भटके आ जाती है पाती, जिसको सौ-सौ बार बाँच कर हग से मोती ढरा करें हैं !!! हम तो आठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं। केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क ११ फरवरी, १६४४ तेरह