पृष्ठ:अपलक.pdf/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपजक ३ अधियाले में उड़-उड़,शून्य-गगन बीच टोह- ज्यों ही,कुछ श्रान्त हुई, नव-नव पथ जोह-जोह, ज्यों ही ही चला सतत, अति असह्य तव विछोह स्यों ही, तुम खूब हुए प्रकट चमक-मूर्तिमान ; ओ, मेरे पुलक प्रान। रेल-पथ, कानपुर से उज्जैन, दिनाङ्क १ मई १९३६ तेतालीस