पृष्ठ:अपलक.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपलक ३ महाकाश ही नहीं हगों में देख रहा हूँ कालान्तर भी, तव नयनों की गहराई में हैं युग-युग के महदन्तर भी ! उनमें निमिष छिपे हैं, साजन, और दुरे हैं मन्वन्तर भी !! वर्तमान है, विगत काल हैं, हैं उनमें भावी के भी क्षण; सजन, करो संतत रस-वर्षण। केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क २०दिसम्बर १९१३ } उनासी