पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०१

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अप्सरा तरह तीन घंटे तक लादे खड़ा रहा। काम की बात कही नहीं कि आँखें फेर ली, मचलकर चल दी। आखिर जात कौन है । अब मैं पैरों पड़ता फिरू। नः बाबा, इतनी कड़ी मिहनत मुझसे न होगी। बहूजी से कह दूं कि यह काम मेरे मान का नहीं, उसे भेजो, जिसे मनाने का अभ्यास हो। राजकुमार धीरे-धीरे बगीचे के फाटफ की तरफ चला । निश्चय कर लिया कि सीधे बहूजी के पास ही जायगा। सर्वेश्वरी भी बड़ी देर तक कनक को न देख खोज रही थी। बाहर आ रही थी कि उससे मुलाकात हुई । “अम्मा, आए हैं, और इसलिये कि उनकी बहूजी मुझसे मिलना चाहती हैं।" कनक ने कहा- मैं चली आई, उधर कँवर साहब के रंग-ढंग भी मुझे बहुत बुरे मालूम दे रहे थे। धम्मा, उसको देखकर मुझे डर लगता है। ऐसा देखता है, जैसे मुझे खा जायगा। छोड़ता ही न था। जब मैंने कहा, अभी अपनी मा से मिल लूँ, फिर जब आप याद करेंगे, मिल जाऊँगी, तब आने दिया। "तुमने कुछ कहा भी उनसे ?' सर्वेश्वरी ने पूछा। "नहीं, मुझ पर उन्हें विश्वास नहीं अम्मा।" कनक की आँखें छल- छला आई। "अभी बार में हैं ?" सर्वेश्वरी ने सोचते हुए पूछा। "थे तो “अच्छा, जय मैं भी मिल लूं। कनक खड़ी देखती रही। सर्वेश्वरी बारा की तरफ चली। राज- कुमार फाटक पार कर चुका था। "भैया, कहाँ जाते हो" घबराई हुई सर्वेश्वरी ने पुकारा। "घर" पचास कदम आगे से बिना रुके हुए रुखाई से राजकुमार ने कहा। "तुम्हारा घर यहीं पर है ?" बढ़ती हुई सर्वेश्वरी ने आवाज दी। "नहीं, मेरे दोस्त का घर है।" राजकुमार और तेज चलने लगा।