पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०३

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१६ अप्सरा प्रसन्न होगी, और उससे ऐसा जाहिर करती है, गोया दूध की धुली हुई है, इन सब कामों के लिये दिल से उसकी बिलकुल सहानुभूति नहीं, और वह ऐसी कनक का महफिल में बैठकर गाना सुनना चाहता है। राजकुमार के रोएँ-रोएँ से नफरत की आग निकल रही थी, जिससे तपकर कनक कल्पना की मति में उसे और चमकती हुई स्नेह- मयी बनकर घेर लेती, हृदय उभड़कर उसे स्टेज की तरफ चलने के लिये मोड़ देता, उसके तमाम विरोधी प्रयत्न विफल हो जाते थे। उसने यंत्र की तरह हृदय की इस सलाह को मान लिया और इसके अनुकूल युक्तियाँ भी निकाल ली। उसने सोचा, “अब बहुत देर हो गई है, बहू सो गई होगी, इससे अच्छा है कि यहीं चलकर कही जरा जल-पान कर और रात महफ़िल के एक कोने में बैठकर पार कर दूं। कनक मेरी है कौन ? फिर मुझे इतनी लज्जा क्यों ? जिस तरह मैं स्टेज पर जाया करता है, उसी तरह यहाँ भी बैठकर बारी- कियों की परीक्षा करूंगा । कनक के सिवा और भी कई तवायफ्रें है। उनके संबंध में मैं कुछ नहीं जानता। उनके संगीत से लेने लायक मुझे बहुत कुछ मिल सकता है।" बस, निश्चय हो गया। फिर बहू का मील-भर दूर मकान मंजिलो दूर सूमने लगा । राजकुमार लौट पड़ा। चौराहे पर कुछ दीपक जल रहे थे, उसी ओर चला । कई दूकाने थी। पूड़ियों की भी एक दूकान थी। उसी तरफ बढ़ा। सामने कुर्सियाँ पड़ी थीं, बैठ गया। आराम की एक ठंडी साँस ली। पाक्-भर पूड़ियाँ तौलने के लिये कहा। भोजन के पश्चात् हाथ-मुँह धोकर दाम दे दिए। इस समय गढ़ के भीतर कुँवर साहब की सवारी का डंका सुनाई पड़ा । दूकानदार लोग चलने के लिये व्यग्र हो उठे। उन्हीं से उसे मालूम हुआ कि अब कुवर साहब महफिल जा रहे हैं। दूकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करने लगे। राजकुमार भी भीतर से पुलकित हो उठा । एक पानवाले की दूकान से एक पैसे के दो बोडे लेकर खाता हुआ गढ' की तरफ चला