पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०४

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अप्सरा ९७ बाहर, खुली हुई जमीन पर, एक मंडप इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये बना था। एक तरफ एक स्टेज था, तीन तरफ से गेट । हर गेट पर संगीन-वंद सिपाही पहरे पर था । भीतर बड़ी सजावट थी। विद्य दाधार मँगवाकर कुँवर साहब ने भीतर और बाहर बिजली की बत्तियों से रात में दिन कर रक्खा था । राजकुमार ने बाहर से देखा, स्टेज जगमगा रहा था। फूट-लाइट का प्रकाश कनक के मुख पर पड़ रहा था, जिससे रात में उसकी सहस्रों गुण शोमा बढ़ गई थी। गाने की आवाज आ रही थी। लोग बातचीत कर रहे थे कि आगरेवाली गा रही है । राजकुमार ने बाहर ही से देखा, तवायफे दो कतारों में बैठी हुई हैं। दूसरी कतार की पहली तवायफ गा रही है। इस कतार में कनक ही सबके आगे थी। उसके बाद बराल में उसकी माता । लोग मंत्रमुग्ध होकर रूप. और स्वर. की सुधा पी रहे थे। अचंचल आँखो से कनक को देख रहे थे। कनक भी दीपक की शिखा की तरह स्थिर बैठी थी। यौवन की उस तरुण ज्योति की तरफ कितने ही पतंग बढ़ रहे थे। कुवर साहब एकटक उसे ही देख रहे थे। राजकुमार को बाहर-ही-बाहर घूमकर देखते हुए देखकर एक ने कहा, बाबूजी, भीतर जाइए, आपके लिये कोई रोक थोड़े ही है । रोक तो हम लोगों के लिये है, जिनके पास मजबूत कपड़े नहीं ; जब कुपर साहब चले जायेंगे, वन, पिछली रात को, कहीं मौका लगेगा। राजकुमार को हिम्मत हुई। एक गेट से भीतर घुसा, सभ्य वेश देख सिपाही ने छोड़ दिया। पीछे जगह- बहुत खाली थी, एक जगह बैठ गया। उसे आते हुए कनक ने देख लिया ! वह बड़ी देर से, जब से स्टेज पर आई, उसे खोज रही थी। कोई भी नया आदमी आता, तो उसकी आँखें जाँच करने के लिये बढ़ जाती थीं। कनक राजकुमार को देख रही थी, उस समय राजकुमार ने भी कनक को देखा और समझ गया कि उसका जाना कनक को मालूम हो गया है, पर किसलिये ऑखें फेरकर बैठ गया । कनक कुछ देर तक अचंचल बष्टि से देखती ही रही । मुख पर किसी प्रकार का विकार न था। राजकुमार के