करती थी। और, हर तरफ से उसने कन्या के लिये स्वतंत्र प्रबंध कर रक्खा था। उसके पढ़ने का घर ही में इंतज़ाम कर दिया था। एक अँगरेज़-महिला, श्रीमती कैथरिन, तीन घंटे उसे पढ़ा जाया करती थी। दो घंटे के लिये एक अध्यापक आया करते थे।
इस तरह वह शुभ्र-स्वच्छ निर्झरिणी विद्या के ज्योत्स्नालोक के भीतर से मुखर शब्द-कलरव करती हुई ज्ञान के समुद्र की ओर अबाध बह चली। हिंदी के अध्यापक उसे पढ़ाते हुए अपनी अर्थ-प्राप्ति की कलुषित कामना पर पश्चात्ताप करते, कुशाग्रबुद्धि शिष्या के भविष्य का पंकिल चित्र खींचते हुए मन-ही-मन सोचते, इसकी पढ़ाई ऊसर पर वर्षा है, तलवार में शान, नागिन का दूध पीना। इसका काटा हुआ एक क़दम भी नहीं चल सकता। पर नौकरी छोड़ने की चिंता-मात्र से व्याकुल हो उठते थे। उसकी अँगरेज़ी की आचार्या उसे बाइबिल पढ़ाती हुई, बड़ी एकाग्रता से उसे देखती और मन-ही-मन निश्चय करती थीं कि किसी दिन उसे प्रभु ईसा की शरण में लाकर कृतार्थ कर देंगी। कनक भी अँगरेजी में जैसी तेज़ थी, उन्हें अपनी सफलता पर ज़रा भी द्विघा न थी। उसकी माता सोचती, इसके हृदय को जिन तारो से बाँधकर मैं इसे सजाऊँगी, उनके स्वर-झकार से एक दिन संसार के लोग चकित हो जायेंगे; इसके द्वारा अप्सरा-लोक में एक नया ही परिवर्तन कर दूँगी, और वह केवल एक ही अंग में नहीं, चारो तरफ; मकान के सभी शून्य छिद्रों को जैसे प्रकाश और वायु भरते रहते हैं, आत्मा का एक ही समुद्र जैसे सभी प्रवाहों का चरम परिणाम है।
इस समय कनक अपनी सुगंध से आप ही आश्चर्य चकित हो रही थी। अपने बालपन की बालिका तन्वी कवयित्री को चारो ओर केवल कल्पना का आलोक देख पड़ता था, उसने अभी उसकी किरण-तंतुओं से जाल बुनना नहीं सीखा था। काव्य था पर शब्द-रचना नहीं, जैसे उस प्रकाश में उसकी तमाम प्रगतियाँ फँस गई हों, जैसे इस अवरोध से बाहर निकलने की वह राह न जानती हो। यही उसका सबसे बड़ा सौदर्य उसमें नैसर्गिक एक अतुल विभूति थी संसार के कुल मनुष्य