स्नेह की विद्युत्-लता काँप उठती। उस अपरिचित कारण की तलाश में विस्मय से आकाश की ओर ताककर रह जाती। कभी-कभी खिले हुए अंगों के स्नेह-भार में एक स्पर्श मिलता, जैसे अशरीर कोई उसकी आत्मा में प्रवेश कर रहा हो। उस गुदगुदी में उसके तमाम अंग काँपकर खिल उठते। अपनी देह के वृंत पर अपलक खिली हुई, ज्योत्स्ना के चंद्र-पुष्प की तरह, सौंदर्योज्ज्वल पारिजात की तरह एक अज्ञात प्रणय की वायु से डोल उठती। आँखों में प्रश्न फूट पड़ता, संसार के रहस्यों के प्रति विस्मय।
कनक गंधर्व-कुमारिका थी। उसकी माता सर्वेश्वरी बनारस की रहने वाली थी। नृत्य-संगीत में वह भारत में प्रसिद्ध हो चुकी थी। बड़े-बड़े राजे-महाराजे जल्से में उसे बुलाते, उसकी बड़ी खातिर करते थे। इस तरह सर्वेश्वरी ने अपार संपत्ति एकत्र कर ली थी। उसने कलकत्ता बहूबाज़ार में आलीशान अपना एक खास मकान बनवा लिया था, और व्यवसाय की वृद्धि के लिये, उपार्जन की सुविधा के विचार से, प्रायः वहीं रहती भी थी। सिर्फ बुढ़वा-मंगल के दिनों, तवायफ़ों तथा रईसों पर अपने नाम की मुहर मार्जित कर लेने के विचार से, काशी आया करती थी। वहाँ भी उसकी एक कोठी थी।
सर्वेश्वरी की इस अथाह संपत्ति की नाव पर एक-मात्र उसकी कन्या कनक ही कर्णधार थी। इसलिये कनक में सब तरफ से ज्ञान का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश भर देना भविष्य के सुख-पूर्वक निर्वाह के लिये, अपनी नाव खेने की सुविधा के लिये, उसने आवश्यक समझ लिया था। वह जानती थी, कनक अब कली नहीं, उसके अंगों के कुल दल खुल गए हैं, उसके हृदय के चक्र में चारो ओर के सौंदर्य का मधु भर गया है। पर उसका लक्ष्य उसकी शिक्षा की तरफ़ था। अभी तक उसने उसकी जातीय शिक्षा का भार अपने हाथों नहीं लिया। अभी दृष्टि से ही वह कनक को प्यार कर लेती, उपदेश दे देती थी। कार्यतः उसकी तरफ़ से अलग थी। कभी-कभी, जब व्यवसाय और व्यवसायियों से फ़ुर्सत मिलती, वह कुछ देर के लिये कनक को बुला लिया