अप्सय १२० तारा ने जमीन पर आसन डालकर थाली रख दी और भोजन के लिये सस्नेह कनक का हाथ पकड़ उठाकर बैठा दिया । कनक के पास इस व्यवहार का, वश्यता स्वीकार के सिवा और कोई प्रतिदान न था । वह चुपचाप आसन पर बैठ गई, और भोजन करने लगी। वहीं तारा भी बैठ गई। . "दीदी, मैं अब आप ही के साथ रहूँगी।" तारा का हृदय भर पाया । कहा- मैंने पहले ही यह निश्चय कर लिया है। हम लोगों में पुराने खयालात के जो लोग हैं, उन्हें तुमसे कुछ दुराव रह सकता है, क्योंकि वे लोग उन्हीं खयालात के भीतर पले हैं, उनसे तुम्हें कुछ दुःख होगा, पर बहन, मनुष्यों के अज्ञान की मार मनुष्य ही तो सहते हैं, फिर स्त्री तो सिर्फ क्षमा और सहनशीलता के कारण पुरुष से बड़ी है। उसके यही गुण पुरुष की जलन को शीतल करते हैं।" कनक सोच रही थी कि उसकी दीदी इसीलिये मोम की प्रतिमा बन गई है। __तारा ने कहा-"मेरी अम्मा, छोटे साहब की मा, शायद वहाँ तुमसे कुछ नफरत करें, और अगर उनसे तुम्हारी मुलाकात होगी, तो मैं उनसे कुछ छिपाकर नहीं कह सकूँगी, और तुम्हारा वृत्तांत सुन कर वह जिस स्वभाव की हैं, तुम्हें छूने में तथा अच्छी तरह बातचीत करने में जरूर कुछ संकोच करेंगी। पर शीघ्र ही वह काशी जानेवाली हैं, अब वहीं रहेंगी। मैं अब के जाते ही उनके काशी-चास का प्रबंध करवाऊँगी।" कनक को हिंदू समाज से बड़ी घृणा हुई, यह सोचकर कि क्या वह मनुष्य नहीं है, अब तक मनुष्य कहलानेवाले समाज के बड़े बड़े अनेक लोगों के जैसे आचरण उसने देखे हैं, क्या वह उनसे किसी प्रकार भी पतित है । कनक ने भोजन बंद कर दिया । पूछा-"दीदी, क्या किसी जाव का आदमी तरक्की करके दूसरी बात में नहीं जा सकता १२
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