पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३४ अप्सरा ___ संध्या हो चुकी थी। सूर्य की अंतिम किरणे पृथ्वी से विदा हो रही थीं। नीचे हरपालसिंह ने आवाज दी। ___ तारा ने ऊपर बुला लिया। हरपालसिंह बिलकुल तैयार होकर आज्ञा लेने आया था कि तारा कहे, तो वह गाड़ी लेकर आ जाय। हरपालसिंह को चंदन के पास पलँग पर बैठाकर तारा नीचे चली गई और थोड़ी देर में चार सौ रुपए के नोट लेकर लौट आई। हरपालसिह को रुपए देकर कहा कि वह सौ-सौ रुपए के तीन थान सोने के गहने और दस-दस रुपए तक के दस थान चाँदी के, जो भी मिल जायें, बाजार से जल्द ले आये। ___ हरपालसिंह चला गया । नारा कमरों में दिए जलाने लगी। फिर पान लगाकर दो-दो बड़े सबको देकर नीचे माता के पास चली गई। उसकी माता पूड़ियाँ निकाल रही थी। उसे देखकर कहा- "इससे तुम्हारी कैसे पहचान हुई ?" ___एक भावज ने कहा-"देखो न, मारे ठसक के किसी से बोली ही नहीं, 'प्रभु से गरब कियो सो हारा, गरख कियो वे बन की घुघची मुख कारा कर डारा।' हमें बड़ी गुस्सा लगी, हमने कहा, कौन बोले इस बहेतू से ?" दूसरी ने कहा- "इसी तरह फिर औरत बिगड़ जाती है, जुझंटा है, व्याह नहीं हुआ, अकेली घूमती है।" तीसरी ने कहा- छोटे बाबू से जान-पहचान अच्छी है।" यह कहकर पूड़ियाँ बेलती हुई अपनी जिठानी की तरफ देखकर आँखो मे बड़ी मार्मिक हँसी हँसी। ___ उसने साथ दिया, "हाँ, देखो न, बेचारे उतनी दूर से विना बोले नहीं रह सके। कैसा बनाया, और कोई जैसे सन्त में छेद करना जानता ही नहीं। उत्साह से तीसरी ने कहा-"इसीलिये तो ब्याह नहीं करते।" तारा को इस आलोचना के बीच बच रहने की काफी