१३८ अप्सरा के दिल में भी हरपालसिंह के प्रति इज्जत पैदा हो गई थी। तारा के साथ ही वह भी उठकर खड़ी हो गई थी। उसका खड़ा होना हरपाल- सिह को बहुत अच्छा लगा। इस सभ्यता से उसके वीर हृदय का एक प्रकार की शांति मिली। तारा उसके पुरस्कार की बात सोचकर भी कुछ ठीक न कर सकी। एकाएक सरस्वती के दिए हुए शब्दों की तरह उसे एक पुरस्कार सूझा-"भैया जरा रुक जाओ। जिसके लिये यह सब हो रहा है, उसे अच्छी तरह देख लो।" यह कह उसने कनक का घूघट उलट दिया । वीर हरपालसिंह की दृष्टि में जय देर के लिये विस्मय देख पड़ा। फिर न-जाने क्या सोचकर उसने गर्दन झुका ली, और अपनी गाड़ी पर बैठ गया। फिर उस तरफ उसने नहीं देखा, धीरे-धीरे सड़क से गाड़ी ले चला। राजकुमार और चंदन पचास कदम तक बढ़कर उसे छोड़ने गए। ____लौटकर राजकुमार को वही कीमती कपड़े, जो कनक के यहाँ उसे मिले थे, पहनाकर, जुद भी इच्छानुसार दूसरी पोशाक बदलकर चंदन स्टेशन कुली बुलाने गया। तारा से कह गया, जरूरत पड़ने पर वह कनक को अपनी देवरानी कहेगी, बाकी परिचय वह दे लेगा। __आगे-आगे सामान लिए हुए तीन कुली, उनके पीछे चंदन, बीच में दोनो स्त्रियाँ, सबसे पीछे राजकुमार अपना सुरक्षित व्यूह बनाकर स्टेशन चले । कनक अवगुंठित, तारा तारा की तरह खुली हुई। पर बारीक विचार रखनेवाले देखकर ही समझ सकते थे, उन दोनो मे कौन अवगुंठित और कौन खुली हुई थी। कनक सब अंगों से ढकी हुई होने पर भी कहीं से भी मुकी हुई न थी। बिल्कुल सीधी, जैसे अपनी रेखा और पद-क्षेप से ही अपना खुला हुआ जोवन सूचित कर रही हो । उधर ताय की तमाम झुकी हुई मानसिक वृत्तियाँ उसके अनवगुंठित रहने पर भी आत्मावरोध का हाल बयान कर रही थीं। नौकर ने जनाने आयम-कमरे का द्वार खोल दिया। लारा कनक को लेकर भीतर चली गई। बाहर दो कुर्सियाँ डलवा, बुक स्टाल से दो अंगरेजी उपन्यास खरीदकर दोनो मित्र बैठकर पढने लगे। लोग
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