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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१७

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अप्सरा

गई। लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। धन-कुबेर लोग दूसरे परिचितों से आँख के इशारे बतलाने लगे। इन्हीं लोगों में विजयपुर के कुँवर साहब भी थे। और न जाने कौन-कौन से राजे-महाराजे सौंदर्य के समुद्र से अतंद्र अम्लान निकली हुई इस अप्सरा की कृपा-दृष्टि के भिक्षुक हो रहे थे। जिस समय कनक खड़ी थी, कुँवर साहब अपनी आँखों से नहीं, खुर्दबीन की आँखों से उसके बृहत् रूप को देख, रूप के अंश में अपने को सबसे बड़ा हक़दार साबित कर रहे थे, और इस कार्य में उन्हें संकोच नहीं हुआ। कनक उस समय मुस्किरा रही थी। भीड़ तितर-बितर होने लगी। अभिनय के लिये पौन घंटा और रह गया। लोग पानी-पान-सोडा-लेमनेड आदि खाने-पीने में लग गए। कुछ लोग बीड़ियाँ फूँकते हुए खुली असभ्य भाषा में कनक की आलोचना कर रहे थे।

ग्रीन-रूम में अभिनेत्रियाँ सज रही थीं। कनक नौकर नहीं थी, उसकी मा भी नौकर नहीं थी। उसकी मा उसे स्टेज पर, पूर्णिमा के चाँद की तरह, एक ही रात में, लोगों की दृष्टि में खोलकर प्रसिद्ध कर देना उचित समझती थी। थिएटर के मालिक पर उसका काफी प्रभाव था। साल में कई बार उसी स्टेज पर टिकट ज्यादा बिकने के लोभ से थिएटर के मालिक उसे गाने तथा अभिनय करने के लिये बुलाते थे। वह जिस रोज उतरती, रंग-मंच दर्शक-मंडली से भर जाता था। कनक रिहर्शल में कभी नहीं गई, यह भार उसकी माता ने ले लिया था।

कनक को शकुंतला का वेश पहनाया जाने लगा। उसके कपड़े उतार दिए गए। एक साधारण सा वस्त्र बल्कल की जगह पहना दिया गया, गले में फूलों का हार। बाल अच्छी तरह खोल दिए गए। उसकी सखियाँ अनसूया और प्रियंवदा भी सज गईं। उधर राजकुमार को दुष्यंत का वेश पहनाया जाने लगा। और और पात्र भी सजाकर तैयार कर दिए गए।

राजकुमार भी कंपनी में नौकर नहीं था। वह शौक़िया बड़ी-बड़ी कंपनियों में उतरकर प्रधान पार्ट किया करता था। इसका कारण वह