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अप्सरा

खुद मित्रों से बयान किया करता। वह कहा करता था, हिंदी के स्टेज पर लोग ठीक-ठीक हिंदी-उच्चारण नहीं करते, वे उर्दू के उच्चारण की नकल करते हैं, इससे हिंदी का उच्चारण बिगड़ जाता है, हिंदी के उच्चारण में जीभ की स्वतंत्र गति होती है, यह हिंदी ही की शिक्षा के द्वारा दुरुस्त होगी। कभी-कभी हिंदी में वह स्वयं नाटक लिखा करता। यह शकुंतला-नाटक उसी का लिखा हुआ था। हिंदी की शुभ कामना से प्रेरित हो, उसने विवाह भी नहीं किया। इससे उसके घरवाले उस पर नाराज़ हो गए थे। पर उसने परवा नहीं की। कलकत्ता सिटी-कॉलेज में वह हिंदी का प्रोफ़ेसर है। शरीर जैसा हष्ट-पुष्ट, वैसा ही वह सुंदर और बलिष्ठ भी है। कलकत्ते की साहित्य-समितियाँ उसे अच्छी तरह पहचानती हैं।

तीसरी घंटी बजी। लोगों की उत्सुक आँखें स्टेज की ओर देखने लगीं। पहले बालिकाओं ने स्वागत-संगीत गाया। पश्चात् नाटक शुरू हुआ। पहले-ही-पहल कण्व के तपोवन में शकुंतला के दर्शन कर दर्शकों की ऑखें तृप्ति से खुल गई। आश्रम के उपवन की यह खिली हुई कली अपने अंगों की सुरभि से कंपित, दर्शकों के हृदय को, संगीत की एक मधुर भीड़ की तरह काँपकर उठती हुई देह की दिव्य धुति से, प्रसन्न-पुलकित कर रही थी। जिधर-जिधर चपल तरंग की तरह डोलती, फिरती, लोगों की अचंचल अपलक दृष्टि, उधर-ही-उधर, उस छवि की स्वर्ण-किरण से लगी रहती। एक ही प्रत्यंग-संचालन से उसने लोगों पर जादू डाल दिया। सब उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उसे गौरव-पूर्ण श्राश्चर्य से देखने लगे।

महाराज दुष्यंत का प्रवेश होते ही, उन्हें देखते ही कनक चौंक उठी। दुष्यंत भी अपनी तमाम एकाग्रता से उसे अविस्मय देखते रहे। यह मौन अभिनय लोगों के मन में सत्य के दुष्यंत और शकुंतला की झलक भर गया। कनक मुस्किराई। दोनो ने दोनो को पहचान लिया।

उनके आभ्यंतर भावों की प्रसन्नता की छाया दर्शकों पर भी पड़ी। लोगों ने कहा---बहुत स्वाभाविक अभिनय हो रहा है। क्रमशः