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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१९

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अप्सरा

आलाप-परिचय, रंग-रस-प्रियता आदि अभिनीत होते रहे। रंगशाला मे बिलकुल सन्नाटा था, जैसे सब लोग निर्वाक, कोई मनोहर स्वप्न देख रहे हों। गांधर्व रीति से विवाह होने लगा। लोग तालियाँ पीटते, सीटियाँ बजाते रहे । शकुंतला ने अपनी माला दुष्यंत को पहना दी। दुष्यंत ने अपनी, शकुंतला को । स्टेज खिल गया।

ठीक इसी समय, बाहर से भीड़ को ठेलते, चेकरों की परवा न करते हुए, कुछ कांस्टेब्लों को साथ ले, पुलिस के दारोगाजी, बड़ी गंभीरता से, स्टेज के सामने, आ धमके ! लोग विस्मय की दृष्टि से एक दूसरा नाटक देखने लगे । दारोगाजी ने मैनेजर को पुकारकर कहा-“यहाँ, इस नाटक-मंडली में, राजकुमार वर्मा कौन है? उसके नाम वारंट है, हम उसे गिरफ्तार करेंगे।"

तमाम स्टेज थर्रा गया। उसी समय लोगों ने देखा, राजकुमार वर्मा, दुष्यंत की ही सम्राट-चाल से, निश्शंक, वन्य दृश्य-पट के किनारे से, स्टेज के बिलकुल सामने, आकर खड़ा हो गया, और वीर की दृष्टि से दारोगा को देखने लगा। वह दृष्टि कह रही थी, हमें गिरफ्तार होने का बिलकुल खौफ नहीं । शकंतला-कनक भी अभिनय को सार्थक करती हुई, किनारे से चलकर अपने प्रिय पति के पास आ, हाथ पकड़, दारोगा को निस्संकोच इस दृष्टि से देखने लगी। कनक को देखते ही शहद की मक्खियों की तरह दारोगा की आँखें उससे लिपट गई। दर्शक नाटक देखने के लिये चंचल हो उठे।

"हमने रुपए खर्च किए हैं, हमारे मनोरंजन का टैक्स लेकर फिर उसमें बाधा डालने का सरकार को कोई अधिकार नहीं। यह दारोगा की मूर्खता है, जो वह अभियुक्त को यहाँ कैद करने आया । उसे निकाल दो।" कॉलेज के एक विद्यार्थी ने जोर से पुकारकर कहा।

"निकाल दो-निकाल दो-निकाल दो" हजारों कंठ एक साथ कह उठे।

ड्राप गिरा दिया गया।

"निकल जाओ-निकल जाओ" पटापट तालियों के वाद्य से स्टेज