पृष्ठ:अप्सरा.djvu/४८

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अप्सरा

कैथरिन के साथ कनक पीछे की सीट में बैठ गई । ड्राइवर गाड़ी ले चला। एक अज्ञात मनोहर प्रदेश में राजकन्या की तलाश में विचरण करते हुए पूर्वश्रुत राजपुत्र की कथा याद आई। राजकुमार निर्लिसत द्रष्टा की तरह यह सोने का स्वप्न देखता जा रहा था।

मकान के सामने गाड़ी खड़ी हो गई। कनक ने हाथ पकड़ राजकुमार

को उतरने के लिये कहा। कैथरिन बैठी नहीं। दूसरे रोज आने का कनक ने उनसे आग्रह किया। ड्राइवर उन्हें पार्क स्ट्रीट ले चला। अपर सीधे कनक माता के कमरे में गई । बराबर राजकुमार का हाथ पकड़े रही । राजकुमार भावावेश में जैसे बराबर उसके साथ-साथ चला गया।

"यह मेरी मा हैं। राजकुमार से कहकर कनक ने माता को प्रणाम

किया। आवेश में, स्वताप्रोरित की तरह, अपनी दशा तथा परिस्थिति के ज्ञान से रहित, राजकुमार ने भी हाथ जोड़ लिए। प्रणाम कर प्रसन्न कनक राजकुमार से सटकर खड़ी हो गई। माता ने दोनो के मस्तक पर स्नेहस्पर्श कर आशीर्वाद दिया। नौकरी को बुलाकर हर्ष से एक-एक महीने की तनख्वाह पुरस्कृत की। कनक राजकुमार को अपने कमरे में ले गई। मकान देखते ही कनक के प्रति राजकुमार के भीतर संभ्रम का भाव पैदा हो गया था। कमरा देखकर उस ऐश्वर्य से वह और भी नत हो गया। कनक ने उसी गढ़ी पर आराम करने के लिये बैठाया। एक बराल खुद भी बैठ गई। "दो रोज से आँख नहीं लगी, सोऊँगा।" . “सोइए" कनक ने आग्रह से कहा । फिर उठकर हाथ की बुनी. बेल-बूटेदार एक पंखी ले आई, और बैठकर मलने लगी। “नहीं, इसकी जरूरत नहीं, बिजली का पंखा तो है, खोलव दीजिए। राजकुमार ने सहज स्वर से कहा।