पृष्ठ:अप्सरा.djvu/५५

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अप्सरा

और विरह प्रणय के स्नेह-स्पर्श से स्वप्न की तरह जाग उठे। सोती हुई स्मृति की विद्य तु-शिखाएँ हृदय से लिपटकर लपटों में जलने जलाने लगीं । तृष्णा की सूखी हुई भूमि पर वर्षा की धारा बह चली । दूर की किसी भूली हुई बात को याद करने के लिये, मधुर अस्फुट ध्वनि से श्रवण-सुख प्राप्त करने के लिये, दोनो कान एकाग्र हो चले । मंत्र-मुग्ध मन में माया का अविराम सुख-प्रवाह भर रहा था! वह अकंपित-अचंचल पलकों से प्रेम की पूर्णिमा में ज्योत्स्नामृत पान कर रहा था। देह की कैसी नवीन कांति ! कैसे भरे हुए सहज-सुंदर अंग! कैसी कटी छटी शोभा ! इसके साथ मँजा हुआ अपनी प्रगति का कैसा अबाध स्वर, जिसके स्पश से जीवन अमद, मधुर, कल्पनाओं का केंद्र बन रहा है। रागिनी की तरंगों से काँपते हुए उच्छवास, तान मूच्छनाएँ उसी के हृदय के सागर की ओर अनर्गल विविध भंगिमाओ से बढ़ती चली आ रही हैं। कैसा कुशल छल! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया, और इस दान में प्राप्ति भी कितनी अधिक, जैसे इसके तमाम अंग उसके हुए जा रहे हैं, और उसके इसके। राजकुमार एकाग्र चित्त से रूप और स्वर, पान कर रहा था । एक-एक शब्द से कनक उसके मर्म तक स्पर्श कर रही थी। संगीत के नशे में, रूप के लावण्य में अलंकारों की प्रभा से चमकती हुई कनक मरीचिका के उस पथिक को पथ से भुलाकर बहुत दूर-बहुत दूर ले गई । वह सोचने लगा-"यह सुख क्या व्यर्थ है ? यह प्रत्यक्ष ऐश्वर्य क्या आकाश-पुष्प की तरह केवल काल्पनिक कहा जायगा ? यदि इस जीवन की कांति हृदय के मधु और सुरभि के साथ वृक्ष ही पर सूख गई, तो क्या फल

"कनक, तुम मुझे प्यार करती हो?"

कनक को इष्ट मंत्र के लक्ष जप के पश्चात् सिद्धि मिली । उसके हृदय के सागर को पूर्णिमा का चंद्र देख पड़ा । उसके यौवन का प्रथम स्वप्न, सत्य के रूप में मूर्तिमान् हो, आँखों के सामने आ गया । चाहा कि जवाब दे, पर लज्जा से सब अंग जकड से गए।