पृष्ठ:अप्सरा.djvu/५४

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अप्सरा


कनक के मन में राजकुमार के बहलाने की बात उठी। उठकर वह पास ही रक्खा हुआ सुस्बहार उठा लाई । स्वर मिलाकर राजकुमार से कहा-"कुछ गाइए। "मैं गाता नहीं। आप गाइए | आप बड़ा सुंदर गाती हैं।" 'आप' फिर कनक के प्राणों में चुभ गया । तिल मिला गई। इस चोट से हृदय के तार और दर्द से भर गए। वह गाने लगी- हमें जाना इस जग के पार । जहाँ नयनों से नयन मिले, ज्योति के रूप सहन खिले, सदा ही बहती रे रस-धार- वहीं जाना इस नग के पार। कामना के कुसुमों को कीट काट करता छिद्रों की बीट, यहाँ रे सदा प्रेम की इंट परस्सर खुलती सौ-सौ बार। डोल सहसा संशय में प्राण रोक लेते है अपना गान, . .. यहाँ रे सदा प्रेम में मान शान में बैठा मोह असार । दूसरे को कस अंतर बोल नहीं होता प्राणों का मोल, वहाँ के बल केवल वे लोल नयन दिखलाते निश्छल प्यार। अपने मुक्त पंखों से स्वर के आकाश में उड़ती हुई भावना की परी को अपलक नेत्रों से राजकुमार देख रहा था। स्वर के स्रोत में उसने भी हाथ-पैर ढीले कर दिए, अलक्ष्य अज्ञान में बहते हुए उसे अपार आनंद मिल रहा था । आँखों में प्रेम का वसंत फूट आया, संगीत में प्रमिका कोकिला कूक रही थी। एक साथ प्रेम की लीला में मिलन