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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/६२

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अप्सरा "हाँ, तुमने उपकार का पूरे अंशों में बदला चुका दिया।" कनक काँप उठी। "कितने कठोर होते हैं पुरुष ! उन्हें सँभलकर वार्तालाप करना नहीं आता । क्या यही यथार्थ उत्तर है ?" कनक सोचती रही। तमककर कहा-हाँ. मैंने ठीक बदला चुकाया, मैं भी स्त्री हूँ।" फिर राजकुमार का हाथ छोड़ दिया । राजकुमार को कनक के कर्कश स्वर से सख्त चोट लगी। चोट खाने की आदत थी नहीं। ऑखें चमक उठी. हृदय-दर्शी की तरह मन ने कहा-'इसने ठीक उत्तर दिया, बदले की बात तुम्हीं ने तो उठाई।" राजकुमार के अंग शिथिल पड़ गए। ___कनक को अपने उत्तजित उत्तर के लिये कष्ट हुआ। फिर हाथ पकड़ स्नेह के कोमल स्वर से-"बदला क्या ? क्या मेरी रक्षा किमी आकांक्षा के विचार से तुमने की थी ?" __ "तुमने !” राजकुमार का संपूर्ण तेज पिघलकर "तुमने" में बह गया, हाथ आप-ही-आप उठकर कनक के गले पर रख गया। विवश कंठ ने आप-ही-श्राप कहा-"क्षमा करो, मैंने गलती की।" । ___सामने से बिजली की रोशनी और पत्तों के बीच से हँसती हुई आकाश के चंद्र की ज्योत्स्ना दोना के मुख पर पड़ रही थी। पत्रों के ममर से मुखर.बहती हुई अदृश्य हवा, डालियों, पुष्प-पल्लवों और दोनों के बँधे हुए हृदयों को सुख की लालसा से स्नेह के झूले में हिला- कर चली गई। दोनो कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। दोनो स्नेह-दीप के प्रकाश में एकांत हृदय के कक्ष में परिचित हो गएकनक पति की पावन मूर्ति देख रही थी, और राजकुमार प्रेमिका की सरस, लावण्यमयी, अपराजित आँखें, संसार के प्रलय से बचने के लिये उसके हृदय में लिपटी हुई एक कृशांगी सुंदरी। "एक बात पूछू?" कनक ने राजकुमार के कंधे पर ठोढ़ी रक्खे हुए यूछा। "तुम मुझे क्या समझते हो?"