अर्वाचीन पालोचना-प्रत्यालोचनाएँ सुनती हुई, निस्संकोच, अम्लान, निर्भय, वीतराग धीरे-धीरे, राजकुमार का हाथ पकड़े हुए, कनक फब्बारे की तरफ बढ़ रही थी। युवक राजकुमार की आखों में वीर्य, प्रतिमा, उच्छृखलता और तेज झलक रहा था। "उधर चलिए ।" कनक ने उसी कुंज की तरफ इशारा किया। दाना चलने लगे। दूसरा छोटा मैदान पाकर दोनो उसी कृत्रिम तालाववाले कुंज की ओर बढ़े। बेंच खाली पड़ी थी। दोनों बैठ गए। सूर्यास्त हो गया था। बत्तियाँ जल चुकी थीं। कनक मजबूती से राजकुमार का हाथ पकड़े हुए पुल के नीचे से डाँड बंद कर पाते हुए नाव के कुछ नवयुवकों को देख रही थी। वे नाव को घाट की तरफ ले गए । राजकुमार एक दूसरी बेंच पर बैठे हुए एक नवीन योरपीय जोड़े को देख रहा था। वह बेंच पुल के उस तरफ, खुली जमीन पर, खाई के किनारे थी। आपने नहीं मेरी रक्षा की थी।" सहज कुछ भरे स्वर में कनक ने कहा। "ईश्वर की इच्छा कि मैंने देख लिया" "श्रापको अब सदा मेरी रक्षा करनी होगी। कनक ने राजकुमार के हाथ को मुट्टी में जोर से दवाया। राजकुमार कुछ न बोला, सिफ कनक के स्तर से कला सजग होकर उसने उसकी तरफ देखा। उसके मुख पर बिजली की रोशनी पड़ रही थी। आँखें एक दूसरी ही ज्योति से चमक रही थीं, जैसे वह एक प्रतिज्ञा की मूर्ति देख रहा हो। "तुमने भी मुझे बचाया है।" "मैंने अपने स्वार्थ के लिये आपको बचाया।" "तुम्हारा कौन-सा स्वार्थ ? कनक ने सिर झुका लिया। कहा-"मैंने भी अपना धर्म पालन किया।