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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/६४

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अप्सरा सकते हो, उसी तरह जेसे अपने को आईने से, और तुम्हारे-जैसे आदमी के लिये, जिसने मेरे जीवन के कुछ अंक पड़े हों, मुझे न समझ सकना मेरे लिये भी वैसे ही रहस्य की सृष्टि करता है। और, यह जानकर तुम्हें कुछ लज्जा होगी कि तुम मुझे नहीं समझ सके, पर अब मेरे लिये तुम्हें समझने की कोई दुरूहता नहीं रही।" "तुमने मुझे क्या समझा ?" “यह मैं नहीं बतलाना चाहती । तुम्हें मैने...नः, नहीं बतलाऊँगी।” "क्यों नहीं क्यों नहीं बदलाइएगा, मैं भी सुनकर ही छोड़गा।" राजकुमार, कनक को पकड़कर, फव्वारे के पास खड़ा हो गया। उस समय वहाँ दूसरा और कोई न था। "चलो भी सच, बड़ी देर हो रही है मुझे अभी बड़ा काम है।" "नहीं, अब बतलाना होगा।" "क्या ?" "यही, आप मुझे क्या समझी।" "क्या समझी!" "हाँ, क्या समर्मी ?" "लो, कुछ नहीं समझे, यही समझे।" "अच्छा, अब शायरी होगी।" "तभी तो आपके सब रूपों में कविता बनकर रहा जायगा । नहीं, अब ठहरना ठीक नहीं। चलो। अच्छा-अच्छा, नाराजगी, मैंने तुम्हें दुष्यंत समझा । बात, कहो, अब भी नहीं साफ हुई ?" ___कहाँ हुई ?" ___ "और समझना मेरी शक्ति से बाहर है। समय आया, तो समझा दिया जायगा।" __राजकुमार मन-ही-मन सोचता रहा-“दुष्यंत का पार्ट जो मैने किया था, इसने उसका मजाक वो नहीं उड़ाया, पार्ट कहीं-कहीं बिगड़ गया था। और ? और क्या बात होगी ?" राजकुमार जितना है बुनता, कल्पना का जाल उतन्य ही जटिल होता जा रहा था। ढोने.