पृष्ठ:अप्सरा.djvu/६८

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अप्सरा प्रशांत हेरती हुई, अपने अपार सौंदय की आप ही उपमा, कनक श्रा रही थी। जितनी दूर-जितनी दूर भी निगाह गई, कनक साथ-ही- साथ, अपने परमाणुओं में फैलती हुई, दृष्टि की शांति की तरह, चलती गई। चंदन, भाषा, भूमि, कहीं भी उसकी प्रगति प्रतिहत नहीं । सबने उसे बड़े श्रादर तथा स्नेह की स्निग्ध घष्टि से देखा। पर राज- कुमार के लिये सर्वत्र एक ही सा व्यंग्य, कौतुक और हास्य ! कनक ने टेबिल पर तश्तरी रख दी। एक और लोटा रख दिया । नौकर ने ग्लास दिया, भरकर ग्लास भी रख दिया। “भोजन कीजिए" शांत दृष्टि से राजकुमार को देख रही थी। राजकुमार परेशान था। उसी के हाथ, उसी की आँखें, उसकी इंद्रिय-तंत्रियाँ उसके वश में नहीं थीं। विद्रोह के कारण सब विखल हो गई थीं। उनका सम्राट ही उस समय दुर्बल हो रहा था । मर्राई आवाज से कहा-"नहीं खाऊँगा।" कनक को सख्त चोट आई। "क्यों " "इच्छा नहीं।" "क्यों ?" "कोई वजह नहीं। कनक सहम गई । क्या ? जिसे होटल में खाते हुए कोई संकोच नहीं, वह बिना किसी कारण के हो उसका पकाया हुआ नहीं खा ___"कोई वजह नहीं.” कनक कुछ कर्कश स्वर से बोली। राजकुमार के सिर पर जैसे किसी ने लाठी मार दी। उसने कनक की तरफ देखा, आँखों से दुपहर की लपटें निकल रही थीं। कनक डर गई । खोजकर भी उसने कोई कुसूर नहीं पाया। आप ही-आप साहस ने उमड़कर कहा, खाएँगे कैसे नहीं। "मेरा पकाया हुआ है।" "किसी का हो।"