६१ अप्सरा उपेक्षा, जितनी ही घृणा कर रहा था, वह उतनी ही चमक रही थी। ऑखों से चंदन का चित्र उस प्रकाश में छाया की तरह विलीन हो जाता, केवल कनक रह जाती थी। कान बराबर वह मधुर स्वर सुनना चाहते थे। हृदय में लगातार प्रतिध्वनि होने लगी, आज रहा, बहुत-सी बातें है, सुन लो, फिर कभी न आना, मैं हमेशा तुम्हारी राह छोड़ दिया करूंगी। राजकुमार ने नीचे देखा, अखबार- वाला झराखे से उसका अखबार डाल गया था। उठाकर पढ़ने लगा। अक्षर लकीर से मालूम पड़ने लगे। जोर से पलकें दबा ली। हृदय मे उदास कनक खड़ी थी-"आज रहो ।" राजकुमार उठकर बैठ गया । एक कुर्ता निकालकर पहनते हुए घड़ी की तरफ़ देखा, ठीक दस का समय था। बाक्स खोलकर कुछ रुपए निकाले । स्लीपर पहनकर बत्ती बुझा दी। दरवाजा बंद कर दिया। बाहर सड़क पर आ खड़ा देखता रहा। "टैक्सी टैक्सी खड़ी हो गई। राजकुमार बैठ गया। “कहाँ चलें बाबू।" "भवानीपुर ।" टैक्सी एक दोमंजिले मकान के गेट के सामने, फुटपाथ पर, खड़ी हुई । राजकुमार ने भाड़ा चुका दिया। दरबान के पास जा खबर देने के लिये कहा। ___ "अरे मैया, यहाँ बड़ी आफत रही, अब आपको मालूम हो ही जायगा, माताजी को साथ लेकर बड़े भैया लखनऊ चले गए हैं, घर बहूरानी अकेली हैं।" एक साँस में दरबान सुना गया। फिर दौड़ता हुआ मकान के नीचे से "महरी-ओ महरी सो गई क्या ?" पुकारने लगा। महरी नीचे उतर आई। "क्या है ? इतनी रात को महरी-ओ महरी- "अरे भाई खफा न हो, जय बहूरानी को खबर कर दे कि रज्जू बाबू खड़े हैं।"
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