पृष्ठ:अप्सरा.djvu/८५

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अप्सरा क्यों नहीं की अब ? अभी तो तमाम पथ ही पड़ा हुआ है। अब उसका कोई लक्ष्य नहीं, वह दिग्यंत्र ही अचल हो गया है ; अब वह केवल प्रवाह की अनुगामिनी है। ___ और राजकुमार १ प्रतिश्रुत युवक के हृदय की आग रह-रहकर ऑखों से निकल पड़ती है। उसने जाति, देश, साहित्य और आत्मा के कल्याण के लिये अपने तमाम सुखों का बलिदान कर देने की प्रतिज्ञा की थी। पर प्रथम ही पदक्षेप में इस तरह आँखों में ऑखें बिंध गई कि पथ का ज्ञान ही जाता रहा। अब वह बार-बार अपनी भूल के लिये पश्चात्ताप करता है, पर अभी उसकी दृष्टि पूर्ववत् साफ नहीं हुई । कनक की कल्पना-भूर्ति उसकी तमाम प्रगतियों को रोककर खड़ी हो जाती और प्रत्येक समर में राजकुमार की वास्तव शक्ति उस छाया-शक्ति से परास्त हो जाती है। तमाम बाहरी कार्यों के भीतर राजकुमार का यह मानसिक द्वंद्व चलता जा रहा है। ___ आज दो दिन से वह युवती के साथ उसके मायके में है। वहीं से उसको वहाँ ले जाने की खबर तार द्वारा लखनऊ भेज दी। चंदन के बड़े भाई, नंदनसिंह ने तार से सूचित किया कि कोई चिंता न करें, मुमकिन है, चंदन को मुक्ति मिल जाय । इस खबर से मकान के लोग प्रसन्न हैं। राजकुमार भी कुछ निश्चित हो गया । गर्मियों की छुट्टी थी, कलकत्ते के लिये विशेष चिंता न थी। युवती को उसके पिता-माता, बड़े भाई और भावजे तारा कहकर पुकारती थीं। तभी राजकुमार को भी उसका नाम मालूम हुआ। राजकुमार के नाम जान लेने पर युवती कुछ लजित हुई थी। राजकुमार का अस्त-व्यस्त सामान युवती के सुपुर्द था। पहले दो-एक रोज तक सँभालकर रखने की उसे फुर्सत नहीं मिली। अब एक दिन अवकाश पा राजकुमार के कपड़े झाड़-भाड़ तहकर रखने लगी। कनक के मकानवाले कपड़े एक में लपेटे अछूत की तरह एक बाल्टी की डंडी में बँधे हुए थे। युवती ने पहले वही गठरी खोली देखा- भीतर एक जोड़ी जूते भी थे। सभी कपड़े कीमती थे।