प्सरा ८२ उसके प्रणय के हाथों ने राजकुमार को बाँधा था, केवल वही अब रिक्त उसके हाथों में रह गई है। ___ अब उसकी दृष्टि में कर्तव्य का ज्ञान नहीं रहा, स्वयं ही संचालित की तरह बाह्य वस्तुओं पर वैठती और फिर वहाँ से उसी की तरह हताश हो उठ आती है। उससे उसकी आत्मा का संयोग नहीं रहता, जैसे वह स्वयं, अब अकेली रह गई । इस आकांक्षा और अप्राप्ति के अपयजित समर में उन्हीं की तरह वह भी उच्छ खल हो गई है। माता के साथ अलक्ष्य गति पर चलती हुई तभी वह गाने के लिये राजी हो गई। जिस जीवन का राजकुमार की दृष्टि में भी आदर नहीं हुधा । उसका अब उसकी दृष्टि में भी कोई महत्व नहीं। सर्वेश्वरी कनक को प्रसन्न रखने के हर तरह के उपाय करती, पर कन्या को हर जगह वह वीतराग देखती। जिससे भविष्य के सुख पर संदेह बढ़ रहा था। वह देखती, चिंता से उसके अचंचल कपोलों पर आत्मसम्मान की एक दिव्य ज्योति खल पड़ती थी, जिससे उसे कुछ त्रस्त हो जाना पड़ता, और कनक की देह की हरियाली के ऊपर से जेठ की लू बह जाती थी। जल की मराल-बालिका को स्थल से फिर जल मे ले जाने की सर्वेश्वरी कोशिश किया करती थी। पर उसका इच्छित तड़ाग दूर था। जिस सरोवर में वह उसे छोड़ना चाहती, वह उसे पंकिल देख पड़ता। स्वयंनिर्मित रूप का जब अस्तित्व ही नहीं रहा, तब कला की निर्जीव मूर्तियों पर कब तक उसकी दृष्टि रम सकती थी? सर्वेश्वरी के चलने का समय आया । तैयारियाँ होने लगी। कपड़े, अलंकार, पेशवाज, साज-सामान श्रादि बँधने लगे। आकाश की उड़ती हुई.परी, पर काटकर, कमरे में कैद की जाने लगी-सुख के सागर की बालिका जी बहलाने के लिये कृत्रिम सरोवर में छोड़ दी गई जीवन के दिन सुख से काटने के विचार से कनक को अपना पेश इख्तियार करने की पुनश्च सलाह दी जाने लगी। सर्वेश्वरी के सार वाधकार लोग भी जमा हो गए। और अनेक तरह की स्तुतियों से कनक को प्रसन्न करने लगे
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