अप्सरा गई-"कुछ नहीं, सिर्फ मिलने के लिये कुँवर साहब ने बुलाया था।" ____ यह भी एकांत स्थान था। गढ़ के बाहर एक बड़ा-सा बँगला बाग के बीच में था। इनके रहने के लिये खाली कर दिया गया था। चारा तरफ हजारों किस्म के सुगंधित फूल लगे हुए थे। बीच-बीच से पक्की टेढ़ी, सर्प की गति की नकल पर राहें कटी हुई थीं। राजकुमार भटकता फिरता पूछता हुआ बारा के फाटक पर आया। एक दफा जी में पाया कि भीतर जाय, पर लज्जा से उधर ताकने की भी हिम्मत नहीं होती थी। सूर्यास्त हो गया था। गोधूलि का समय था। गढ़ पर खड़ा रहना भी उसे अपमान-जनक जान पड़ा । वह बारा मे धुसकर एक बेंच पर बैठ गया, और जेब से एक बीड़ी निकालकर पीने लगा। वह जिस जगह बैठा था, वहीं से कनक के सामने ही एक मरोखा था और उससे वहाँ तक नजर साफ चली जाती थी। पर अंधेरे के कारण बाहर का आदमी नहीं देख सकता था । कनक वर्तमान समय की उलझी हुई ग्रंथि को खोलने के लिये मन-ही-मन सहस्रों बार राजकुमार को बुला चुकी थी और हर दुका प्रत्युत्तर मे उसे निराशा मिलती थी- राजकुमार यहाँ क्यों आएगा ?" कनक की माता भी उसकी फिक में थी। कारण, वह जानती थी कि किसी भी अनिश्चित कार्य का दबाव पड़ने पर उसकी कन्या जान पर खेल जायगी । वह कनक के लिये दीन-दुनिया सब कुछ छोड़ सकती थी। राजकुमार के हृदय में लज्जा, अनिच्छा, धृणा, प्रेम, उत्सुकता, कई विरोधी गुण थे, जिनका कारण बहुत कुछ उसकी प्रकृति थी और थोड़ा-सा उसका पूर्व-संस्कार और भ्रम । संध्या हो गई। नौकर लोग भोजन पकाने लगे। कमरों की बत्तियाँ जल गई। बाहर के लाइट- पोस्ट भी जला दिए गए । राजकुमार की बेंच एक लाइट-पोस्ट के नीचे थी। बची जलानेवाला राज्य का मशालची था। पर उसने राजकुमार को तबलची श्रादि में शुमार कर लिया था। इसलिये पूछ-ताछ नहीं की । कंधे की सीढ़ी पोस्ट से लगाकर बत्ती जला राजकुमार की तरफ से घृणा से मुँह फेरकर, उस तबलची से वह मशालची होने पर भी
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