पृष्ठ:अप्सरा.djvu/९६

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अप्सरा ह "अच्छा, तो घंटे-भर पहले चली जाइएगा।". कुवर साहब ने मुसाहबों की तरफ देखकर कहा। "रास्ते की थकी हुई हूँ, माफ फर्माएँ, मैं कुछ देर आराम करना चाहती हूँ। आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गई।" ___ "कमरे में पलँग विछा है, आराम कीजिए।" कुँवर साहब की इस अति-मधुर स्तुति में जो लालसा छिपी हुई थी, कनक उसे ताड़ नही सकी, शायद अनभ्यास के कारण, पर उसका जी उतनी ही देर में हद से ज्यादा ऊब गया था। उसने स्वाभाविक ढंग से, कहा-"यहाँ मैं आराम नहीं कर सकूँगी, नई जगह है. मुझे मेरी मा के पास भेज दीजिए, फिर जब आपकी आज्ञा होगी, मैं चली आऊँगी।" कुँवर साहब ने कनक को भेज दिया। सर्वेश्वरी वहाँ ठहराई गई थी, जहाँ बनारस, लखनऊ, आगरे की और-और तवायफें थीं। सर्वेश्वरी का स्थान सबसे ऊँचा, सजा हुआ तथा सुखद था। और और तवायफों पर पहले ही से उसका रोष गालिब था । वहाँ कनक को न देख सर्वेश्वरी जाल में पड़ी हुई साचकर बहुत व्याकुल हुई। और मी जितनी तवायफ्रें थीं, सबसे समाचार कहा । सब त्रस्त हो रही थीं । उसी समय उदास कनक को लेकर मोटर पहुँची। सर्वेश्वरी की जान-में-जान आई। और और तवाय आँखें फाड़कर उसके अपार रूप पर विस्मय प्रकट कर रही थी, और इस तरह का खतरा साथ ही में रखकर खतरे से बची रहने के ख्याल पर "बिस्मिल्लाह-तौबा, अल्लाह मियाँ ने आपको कैसी अक्ल दी है कि इतना जमाना देखकर भी आपको पहले नहीं सूमा" श्रादि-आदि से सहानुभूति के शब्दों से अभिनंदित कर रही थी। सर्वेश्वरी आशा कर रही थी कि कनक अपने दुःख की कथा कहेगी। पर वह उस प्रसंग पर कुछ बोली ही नहीं। माता के विस्तरे पर बैठ गई। और भी कई अपरिचित तवाय परिचय के लिये पास आ घेरकर बैठ गई। मामूली कुशल प्रश्न होते रहे । सबने अनेक उपायें से कनक के एकत्र वास का हाल जानना चाहा, पर वह टाल है.