पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०४

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अभिधर्मकोश (२०) प्रथम अनास्रव इन्द्रिय से अर्थात् अनाज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रिय से निर्वाण का प्रभाव आदिभाव होता है । (२१) द्वितीय अनास्रव इन्द्रिय-आज्ञेन्द्रिय-से निर्वाण की स्थिति, विपुलता होती है । (२२) तृतीय अनासव इन्द्रिय-आज्ञातावीन्द्रिय से निर्वाण का उपभोग होता है क्योंकि इस इन्द्रिय से विमुक्ति के प्रीति-सुख का प्रतिसंवेदन होता है (देखिए पृ० ११०) । अतः इन्द्रियाँ एतावत् ही हैं और इसीलिए सूत्र में इनका यह अनुक्रम' है । वाक्-पाणि- पाद-पायु-उपस्थ का इन्द्रियत्व नहीं है। १. वचन पर वाक् का आधिपत्य नहीं है क्योंकि वचन शिक्षाविशेष की अपेक्षा करता है। २-३. पाणि-पाद का आदान और विहरण में आधिपत्य नहीं है क्योंकि जिसे आदान और विहरण कहते हैं वह पाणि-पाद से अन्य नहीं है। पाणि-पाद का द्वितीय क्षण में अन्यत्र अन्यथा अर्थात् अभिनव संस्थान के साथ (४.२ वी-डी) उत्पन्न होना आदान-विहरण कहलाता है । इसके अति- रिक्त हम देखते हैं कि उरग प्रभृति का आदान-विहरण बिना पाणि पाद के होता है । पुरीपोत्सर्ग में पायु का आधिपत्य नहीं है क्योंकि गुरु द्रव्य का सर्वत्र आकाश (=छिद्र) में पतन होता है । पुनः वायुधातु इस अशुचि द्रव्य का प्रेरण करता है और उसका उत्सर्ग करता है । ५. उपस्थ का भी आनन्द में आधिपत्य नहीं है क्योंकि आनन्द स्त्री-पुरुषेन्द्रियकृत है । {११३] यदि आप पाणिपादादि को इन्द्रिय मानते हैं तो आपको कंठ, दन्त, अक्षिवम, अंगुलिपर्व का भी अभ्यवहरण, चर्वण, उन्मेष-निमेष, संकोच-विकासक्रिया के प्रति इन्द्रियत्व मानना पड़ेगा। इसी प्रकार सर्वकारणभूत का जिसका जहां अपना पुरुषकार (२.५८) होता है उस क्रिया के प्रति इन्द्रियत्व हागा । किन्तु उसी का इन्द्रियत्व इष्ट है जिसका आधिपत्य होता है। हमने चक्षुरादि और स्त्री-पुरुषेन्द्रिय का निर्देश किया है (१.९-४४) । जीवितेन्द्रिय का निर्देश चित्तविप्रयुक्तों के साथ (२.३५) होगा जिनमें यह परिगणित है। श्रद्धादि पंचक चैत्त हैं, अतः चेत्तों (२.२४) में उनका निर्देश होता है । वेदनेन्द्रिय और अनास्रवेन्द्रिय जो अन्यत्र नहीं पाये जाते उनका हम यहाँ निर्देश करेंगे। दुःखेन्द्रियमसाता या कायिकी वेदना सुखम् । साता ध्याने तृतीय तु चैतसी सा सुखेन्द्रियम् ॥७॥ २ जातमात्र बालक चक्षु से रूप देखता है किन्तु बोलता नहीं। वचन जिहवेन्द्रिय के अधिष्ठान का कर्म है--सांख्यों के अनुसार कर्मेन्द्रिय विज्ञानेन्द्रिय के समान अतीन्द्रिय द्रव्य हैं । वाक वचन-सामन्य है, पाणि आदान-सामर्थ्य है, इत्यादि । व्या० ९८.३२] आप कहते हैं कि सर्प के सूक्ष्म पाणि-पाद होते हैं किन्तु इसे सिद्ध करना आवश्यक है। 3 फापेन्द्रियदेशभूत पुरुपेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय से व्यतिरिक्त उपस्थ कल्पित होता है। (यापेन्द्रियकदेशस्योपुरुपेन्द्रियच्यतिरिक्तफल्पित) 'आनन्द' "पिलप्ट सौख्य है। (व्या० ९९.११)