पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३५

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द्वितीय कोशस्थान : चत्त १२१ वेदना चेतना संज्ञा छन्दः स्पर्शो मतिः स्मृतिः। मनस्कारोऽधिमोक्षश्च समाधिः.सर्वचेतसि ॥२४॥ महाभूमिक कौन है ? १५३] २४. वेदना, चेतना, संज्ञा, छन्द, स्पर्श, मति , स्मृति, मनस्कार, अधिमोक्ष और समाधि सर्वचित्त में सहवर्तमान होते हैं।' सिद्धान्त के अनुसार यह दस धर्म सर्वचित्तक्षण में होते हैं । १. वेदना त्रिविध अनुभव है : सुखा, दुःखा, अदुःखासुखा (१.१४) । करते। १ होने से उन्हें महाभूमिक कहते हैं । महाभूमि और धर्म होने से यह महाभूमिक धर्म हैं। वो. कुछ का कहना है : चित्त महान् है क्योंकि उसका स्वभाव और उसका कारित्र उत्कृष्ट है। यह महान् है और भूमि है। इसलिए इसे महाभूमि कहते हैं क्योंकि यह चैत्तों का आश्रयभूत स्थान है । वेदनादि १० धर्म महाभूमिक धर्म कहलाते हैं क्योंकि यह महाभूमि में सर्वत्र पाए जाते हैं। सी. कुछ का कहना है : वेदनादि १० धर्म सर्वत्र चित्त के साथ पाए जाते हैं । इसलिए इन्हें 'महान्' कहते हैं । इनकी भूमि चित्त है। इसलिए चित्त को महाभूमि काहते हैं । महाभूमि में वेदनादि सहज हैं; अतः वेदनादिक महाभूमिक धर्म कहलाते हैं। वसुबन्धु तृतीय निर्वचन देते हैं। हम देखेंगे (३.३२ ए-बी) कि श्रीलाभ महाभूमिक आख्या के इस लक्षण को नहीं स्वीकार [वेदना चेतना संज्ञा छन्दः स्पर्शो] मतिः स्मृतिः। मिनस्कारोऽधिमोक्षश्च समाधिः सर्वचेतसि ॥ ए. शुआन्-चा शोधते हैं : वेदना संज्ञा चेतना स्पर्श छन्द प्रज्ञा स्मृति सनस्कार अधिमुक्ति समाधि। अभिधर्म (प्रकरणपाद, धातुकाय) का क्रम इस प्रकार है : वेदना संज्ञा चेतना स्पर्श मनस्कार छन्द अधिमुक्ति स्मृति समाधि प्रज्ञा-वसुवन्धु (पंचस्कन्धक) ५ सर्वगः स्पर्श मनस्कार वेदना संज्ञा चेतना और ५ प्रतिनियत विषय : छन्द अधिमुक्ति स्मृति समाधि प्रज्ञा मानते है। महाव्युत्पत्ति १०४ (जिसमें अधिमोक्ष पाठ है) का क्रम अन्य से भिन्न है । 'अधिमुक्ति' पाठ का समर्थन पृष्ठ १५४ टिप्पणी ५ में उद्धृत व्याख्या से होता प्रतीत होता है। बी. व्याख्या के सार को हम मूल में देते हैं। सी. धातुकाय (२३.१०, फोलिओं २ए)में दिये लक्षण अभिधम्म के प्रकार के हैं, यथा समाधि का यह लक्षण दिया है: "चित्त की स्थिति, संस्थिति, अभिष्ठिति, उपस्थिति, अविक्षेप, अध- दृन (महाव्युत्पत्ति, २४५, २२६), संधार, शमथ, समाधि, चित्तस्यैकाग्रता--इसे समाधि कहते हैं।" (विभंग, पृ. २१७, धम्मसंगणि, ११) । इसी प्रकार वेदना वेदना, संवेदना, प्रतिसंवेदना, वेदित है । जो अनुभूत होगा वह वेदना के अन्तर्गत है ।--स्मृति स्मृति, अनुस्मृति, प्रतिस्मृति, स्मरण, असंप्रमोपता.... चेतसोऽभि- लाप है। २ 'किल' शब्द दिखाता है कि आचार्य सिद्धान्त के मत का (विभाषा, १२, १०) व्याख्यान कर रहे हैं । वह स्वमत का निर्देश पंचस्कन्धक में करते हैं [व्या० १२७.२०] । पंचस्कन्वक का उद्धरण कोशस्थान ३, कारिका ३२ को व्याख्या में है, इस वचन के लक्षणों को तुलना विशिका, सिद्धि और अभिसमयालंकारालोक के लक्षणों से कीजिए।